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6.4.21

ध्वज तिरंगा लौहित किले पे अनमना है ।

            यह कविता राष्ट्र द्रोहियों की दुरभि संधि को उजागर कर रही है 26 जनवरी से लेकर 3-4 अप्रैल 2021 तक की घटनाओं की निकटता को प्रस्तुत कर रही है। देखना है शाहीन बाग पर अश्रुपात करने वाली कलमों की #पहल क्या होगी ..?
व्योम पे देखो ज़रा क्या तम घना है ?
रुको देखूँ शायद ये मन की वेदना है ।।
रक्त वीरों का सड़क को रंग रहा है -
ध्वज तिरंगा लौहित किले पे अनमना है ।
आज ग़र कौटिल्य मिल जाये कदाचित
कहूँगा जन्म लो चाणक्य मेरी याचना है ।
बंदूक से सत्ता के पथ खोजे जा रहें हैं-
जनतंत्र मेरे वतन का अब अनमना है ।।
आयातित बकरियों, का चरोखर देश ये
कर्मयोगी बोलिये, अब क्या बोलना है ?
आज़ाद मुक्ति मांगते बेशर्म होकर -
मुक्ति की ये मांग कैसी, और कैसी चेतना है ?
आज़ फिर सुकमा की ज़मीं को रंगा उनने
दुष्टों का संहार कर दो भला अब क्या सोचना है ।।
       

19.12.20

कविता कब लौटेगी, बीते दिन की मेरी तेरी राम कहानी ।।

वो किवाड़ जो खुल जाते थे, 
पीछे वाले आंगन में
गिलकी लौकी रामतरोई , 
मुस्कातीं थीं छाजन में ।
हरी मिर्च, और धनिया आलू, अदरक भी तो  मिलते थे-
सौंधी साग पका करती थी , 
मिटटी वाले बासन में ।।

वहीं कहीं कुछ फुदक चिरैया, कागा, हुल्की आते थे-
अपने अपने गीत हमारे, 
आँगन को दे जाते थे ।।
सुबह सकारे दूर कहीं से 
सुनके लमटेरों की  धुन
जितना भी हम समझे 
दिन 
भर राग लगाके गाते थे ।। 

कुत्ते के बच्चे की कूँ कूँ, 
तोते ने रट डाली थी
चिरकुट बिल्ली घुस चौके में, 
दूध मलाई खाती थी ।
वो दिन दूर हुए हमसे अब, 
नैनों में छप गई कथा
चने हरे भुनते, खुश्बू से , 
भीड़ जमा हो जाती थी ।।

गांव पुराने याद पुरानी, 
दूर गांव की गज़ब कहानी ।
कब लौटेगी, बीते दिन की 
मेरी तेरी राम कहानी ।।
शाम ढले गुरसी जगती थी, 
सबके घर की परछी में-
दादी हमको कथा सुनाती, 
एक था राजा एक थी रानी ।।
गिरीश बिल्लोरे मुकुल

2.12.16

*दो कविताएँ*.


  *तुम्हारी देह-भस्म जो काबिल नहीं होती*
अंतस में खौलता लावा
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपका
तुम से मिलता हूँ ….!!
तब जब तुम्हारी बातों की सुई
मेरे भाव मनकों के छेदती
तब रिसने लगती है अंतस पीर
भीतर की आग पीढ़ा का ईंधन पाकर
युवा हो जाता है यकायक लावाअचानक ज़ेहन में या सच में सामने आते हो
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपका
तुम से मिलता हूँ ….!!
मुस्कुराकर ……. अक्सर ………
मुझे ग़मगीन न देख
तुम धधकते हो अंतस से
पर तुम्हें नहीं आता
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपकाना ….!!
तुममें मुझसे बस यही अलहदा है .
तुम आक्रामक होते हो
मैं मूर्खों की तरह टकटकी लगा
अपलक तुमको निहारता हूँ
और तुम तुम हो वही करते हो जो मैं चाहता हूँ
धधक- धधक कर खुद राख हो जाते हो
फूंक कर मैं …….. फिर उड़ा देता हूँ ………
अपने दिलो-दिमाग से तुम्हारी देह-भस्म
जो काबिल नहीं होती भस्म आरती के

*बुद्ध कब मुस्कुराओगे*
तथागत सुना है जब मुस्कुराते हो
तब कुछ न कुछ बदलता है 
*
सीरिया की बाना ने* 
बम न गिराने की अपील की है 
अब फिर मुस्कुराओ 
बताओ 
बच्चे स्कूल जाना चाहते हैं 
गाना गाना चाहते हैं *इशिता* की मानिंद 
लिखना चाहतें हैं *बीनश* की तरह क्रिएटिव
अब बम न गिराओ 
हमारी किलकारियां उनके बम 
से ज़्यादा असरदार है 
वो जो धर्म हैं 
वो जो पंथ हैं 
वो जो सरकार हैं 
जी हाँ किलकारियां 
उन सबकी आवाज़ से ज़्यादा असरदार हैं 
बुद्ध अब तो मुस्कुराओ
एक शान्तिगीत गाओ 
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल”* *

12.7.15

अंतरात्मा की आवाज़

मत कहो
अंतरात्मा की आवाज़ सुनो
मैंने सुनी हैं ये आवाजें
बहुत खतरनाक हैं भयावह हैं
तुम हिल जाओगे
बचाव के रास्ते न चुन पाओगे
पहले तुम
अंतरात्मा की आवाज़ सुनो
गुणों चिंतन करो
आगे बढ़ो मुझे न सिखाओ
न मैं बिना गले वाला हूँ
मेरे पास सुर हैं संवाद है
आत्मसाहस है
जो जन्मा है मेरे साथ
बोलूंगा अवश्य अंतर आत्मा की आवाज़ पर
तुम सुन नहीं पाओगे
मेरी अंतरात्मा से निकलीं
आवाजें जो तुम्हारी हैं
भयावह भी जो तुम्हारी छवि खराब करेगी
तुम्हारे बच्चे डरेंगे मुझे इस बात की चिंता है ...
**गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”  


24.6.15

मत पालो किसी में ज़रा सा भी ज्वालामुखी

मैं अपराजित हूँ 
वेदनाओं से 
चेहरे पर चमक 
लब पर मुस्कान 
अश्रु सागर शुष्क
 नयन मौन  
पीढ़ा जो नित्याभ्यास है 
पीढ़ा जो मेरा विश्वास है . 
जागता हूँ 
सोता हूँ 
किन्तु
खुद में नहीं 
खोता हूँ !
इस कारण 
मैं अपराजित हूँ 
जीता हूँ जिस्म की अधूरी 
संरचना के साथ 
जीतीं हैं कई 
स्पर्धाएं और प्रतिघात 
विस्मित हो मुझे क्यों देखते हो ?
तुम क्या जानो 
जब ज्वालामुखी सुप्त है 
लेलो मेरी परीक्षा ...!
याद रखो जब वो फटता है तो 
.......... जला देता है जड़ चेतन सभी को 
मत पालो किसी में ज़रा सा भी ज्वालामुखी 
   

22.6.15

मुझे चट्टानी साधना करने दो

 रेवा तुम ने जब भी
तट सजाए होंगे अपने
तब से नैष्ठिक ब्रह्मचारिणी चट्टाने मौन हैं
कुछ भी नहीं बोलतीं
हम रोज़ दिन दूना राज चौगुना बोलतें हैं
अपनों की गिरह गाँठ खोलते हैं !
पर तुम्हारा सौन्दर्य बढातीं
ये चट्टानें
  हाँ रेवा माँ                                          
ये चट्टानें  बोलतीं नहीं
कुछ भी कभी भी कहीं भी
बोलें भी क्यों ...!
कोई सुनाता है क्या ?
दृढ़ता अक्सर मौन रहती है
मौन जो हमेशा समझाता है
कभी उकसाता नहीं
मैंने सीखा आज
संग-ए-मरमर की वादियों में
इन्ही मौन चट्टानों से ... "मौन"
देखिये कब तक रह पाऊंगा "मौन"
इसे चुप्पी साधने का
आरोप मत देना मित्र
मुझे चट्टानी साधना करने दो
खुद को खुद से संवारने दो !!

 

21.6.15

चार कविताएँ

(1) 
ज़्यादातर मौलिक नहीं
“सोच”  
सोच रहा होता हूँ
सोचता भी कैसे
प्रगतिशीलता के खेत में
मौलिक सोच
की फसल उगती ही नहीं .
(2)
सोचता हूँ
गालियाँ देकर
उतार लूं भड़ास ..?
पर रोज़िन्ना सुनता हूँ
तुम गरियाते हो किसी को
बदलाव
फिर भी
नज़र नहीं आता !!
(3)
जिस दूकान पर मैं बिका
सुना है ..
तुम भी
उसी दूकान से बिके थे ?
बिको जितना संभव हो
वरना
जब मरोगे तब कौन खरीदेगा
सिर्फ जलाने
दफनाने के लायक ही रहोगे
आज बिको
पैसा काम आएगा  !

(4)
पापा
आप जो रजिस्टर
दफ्तर से लाए थे
बहुत काम आया
कल उसमें मैंने लिखी थी
ईमानदारी पर एक कविता
सबको बहुत अच्छी लगी
मुझे एवार्ड भी मिला
ये देखो ?
मैं उसका एवार्ड  
देख न पाया !!   

31.3.15

पूरे शहर को मेरी कमियाँ गिना के आ



पूरे शहर को मेरी कमियाँ  गिना के आ

जितना भी  मुझसे बैर हो, दूना निभा के आ ।

**************
कब से खड़ा हूं ज़ख्मी-ज़िगर हाथ में लिये

सब आए तू न आया  , मुलाक़ात के लिये  !

तेरे दिये ज़ख्मों को तेरा ईंतज़ार है –

वो हैं हरे तुझसे सवालत के लिये !!

       चल दुश्मनी का ही सही रिश्ता निभा ने  आ 

**************
रंगरेज हूँ  हर रंग की तासीर से वाकिफ 

जो लाता  है दुआऐं मैं हूँ  वही काज़िद  ।

शफ़्फ़ाक हुआ करतीं  हैं झुकी डालियाँ मिलके 

इक तू ही मेरी हकीकत न वाकिफ  . 

       आ मेरी तासीर को आज़माने आ  .    

   **************

19.9.14

न्यायालय से हुए समाचार घर


मन चिकित्सक बना देखता ही रहा, दर्द ने देह पर हस्ताक्षर किये...!
आस्था की दवा गिर गई हाथ से और रिश्ते कई फ़िर उजागर हुए...!!

हमसे जो बन पड़ा वो किया था मग़र  कुछ कमी थी हमारे प्रयासों में भी
हमसे ये न हुआ, हमने वो न किया, कुछ नुस्खे लिये  न किताबों से ही
लोग समझा रहे थे हमें रोक कर , हम थे खुद के लिये खुद प्रभाकर हुए
मन चिकित्सक बना देखता ही रहा, दर्द ने देह पर हस्ताक्षर किये...!

चुस्कियां चाय की अब सियासत हुईं  प्याले ने आगे आके बदला समां,
चाय वाले का चिंतन गज़ब ढा गया पीने वाले यहीं और वो है कहां..?
उसने सोचा था जो सच वही हो गया, गद्य बिखरे बिखरके आखर हुए
मन चिकित्सक बना देखता ही रहा, दर्द ने देह पर हस्ताक्षर किये...!

हर तरफ़ देखिये नागफ़नियों के वन, गाज़रीघास की देखो भरमार है
*न्यायालय से हुए समाचार घर, ये समाचार हैं याकि व्यापार हैं....?
छिपे बहुत से हिज़ाबों ही, कुछेक ऐसे हैं जो उज़ागर हुए...!!
मन चिकित्सक बना देखता ही रहा, दर्द ने देह पर हस्ताक्षर किये...!

*News Room's like Court 

11.3.14

भीड़ तुम्हारा कोई धर्म है ..?


भीड़ तुम्हारा
कोई धर्म है ..
यदि है तो तुम
किसी के भरमाने में क्यों आ जाती हो..
अनजाने पथ क्यों अपनाती हो
भीड़ ....
तुम अनचीन्हे रास्ते मत अपनाओ
क़दम रखो मौलिक सोच के साथ
पावन पथों पर
मोहित मत होना
आभासी दृश्यों में उभरते
आभासी रथों पर
तब तो तुम सच्ची शक्ति हो !
वरना हिस्से हिस्से अधिनायकत्व
के अधीन कोर्निस करते नज़र आओगे
सामंती ठगों के सामने
सबकी सुनो
अपनी बुनों
चलो बिना लालच के
बिको मत
 दृढ़ दिखो
 स्वार्थ साधने
बिको मत

10.12.13

सुनो सूरज तुम जा रहे हो.. मैं भी चलता हूं..

सुनो सूरज
तुम जा रहे हो..
मैं भी चलता हूं..
तुम्हारी मेरी
हर एक शाम
एक अनुबंधित शाम है
तुम भी घर लौटते हो
रोजिन्ना मैं भी घर लौटता हूं..!
धूल सना मैं..
लिपटते हैं बच्चे मुझसे
द्वारे से आवाज़ सुनाई देती है
मुन्नू बाबू आ गये...?
ज़वाब मैं देता हूं-"हां, हम आ गये !"
तब हाथ-पानी की सौंधी खुशबू वाली रोटीयां
सिंक रही होतीं हैं..
प्याज़.. नमक... वाली रोटीयां.. हरी-मिर्च के साथ
बहुत स्वादिष्ट होतीं हैं.
दिन भर की थकन मिट जाती है
भूख के साथ ..
अबके हाट से साग-भाजी ले आने का वादा
कर देता हूं कभी कभार
ले भी आया हूं कई बार .
पर वो कहती है...
खरच कम करो
बच्चों के लिये कुछ बचा लो
सिरपंच रात को बैठक में
रोजी के  नये रास्ते बताता है.
कर्ज़ के फ़ारम भरवाता है.
सरकार का संदेश सुनाता है.
ये सब कुछ समझ नहीं आता है..
लौटता हूं फ़ारम लेकर
मुन्नू-मुन्नी को दे देता हूं नाव-हवाई जहाज़-फ़िरकी बनाने
मुझे मालूम है कित्ते चक्कर लगाने पड़ते हैं कर्ज़ के लिये..
मिलता भी तो आधा-अधूरा
फ़िर कर्ज़ का क्या करूंगा
खेत में पसीना बोता हूं..
चैन से खाता-पीता और सोता हूं..
सूरज तुम शायद चैन से सो पाते हो या नहीं..
मेरी तरह... 

23.4.13

तुम्हारी तापसी आंखों के बारे में कहूं क्या ? अभी तक ताप से उसके मैं उबरा नहीं हूं....!!

छायाकार वत्सल चावजी
तुम्हारी तापसी आंखों के बारे में कहूं क्या ?
अभी तक ताप से उसके मैं उबरा नहीं हूं....!!

समन्दर सी अतल गहराई वाली नीली आंखों ने
निमंत्रित किया है मुझको सदा ही डूब जाने को,
डूबता जा रहा हूं कोई तिनका भी नहीं मिलता ....
अगर मन चाहे जो  साहिल पे लौट आने को !
     तुम ही ने तो बुलाया है कहो क्या दोष है मेरा
     समंदर में प्रिये मैं खुद-ब़-खुद उतरा नहीं हूं..!!

तुम्हारे रूप का संदल महकता मेरे सपनों में
हुआ रुसवा बहुत,जब भी बैठा जाके अपनों में
किसी नेयेकहा और कोई कहकेवोमुस्काया
 मैं पागल हो गया हूं कहते सुना नुक्कड़ के मज़मों में .
     यूं अनदेखा कर कि जी पाऊंगा अब आगे-
      नज़र मत फ़ेर मुझसे गया गुज़रानहीं हूं मैं !!




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