12.6.17

कोलाहल



कोलाहल
कोलाहल हूँ  गूँज रहा हूँ  अंतस से चौराहे तक
इकतारे के आसपास भी, नुक्कड़ से दोराहे तक
भरी सभा में वक्ता से पहले मैं ही तो करता हूँ राज़
आपस का संवाद तुम्हारे , चिड़ियों के सो जाने तक
कोलाहल हूँ  गूँज रहा हूँ 

भय से भरा कोई सुनता है, कोई रचनाकार मेरा
कोई लगा रहा अंदाजा कितना है आकार मेरा ?
मुद्दे सारे कोलाहल हैं, साफ़ कहे जातें हैं क्या ..?
मानस से बस्ती शहरों तक होता है विस्तार मेरा !!
कोलाहल हूँ  गूँज रहा हूँ 

सबका हूँ,  हूँ  पास तुम्हारे, चिंता के गलियारों में
भोर जन्म ले लेता हूँ मैं, कभी रात- अंधियारों में .
कभी अचानक मन के भीतर – उठता हूँ मैं देर सवेर
रोज़ मिला करते हो मुझसे, भीड़ भरे बाज़ारों में !!
 कोलाहल हूँ  गूँज रहा हूँ 

धुआंधार की गिरती धारा, मुझको जना करे है रोज़
सन्नाटों के षडयंत्रों के बाद , मेरा बढ़ता है ओज .
जनमन की प्रतिध्वनि हूँ , तुमने क्यों न पहचाना
कोलाहल हूँ भरा ख़ुशी से, या फिर होता हूँ आक्रोश .!!
                      गिरीश बिल्लोरे मुकुल    

    

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