1.7.14

"माई री मैं कासे कहूं पीर .... !"


विधवा जीवन का सबसे दु:खद पहलू है कि उसे सामाजिक-सांस्कृतिक अधिकारों से आज़ भी  समाज ने दूर रखा है. उनको उनके सामाजिक-सांस्कृतिक अधिकार देने की बात कोई भी नहीं करता. जो सबसे दु:खद पहलू है. शादी विवाह की रस्मों में विधवाओं को मंडप से बाहर रखने का कार्य न केवल गलत है वरन मानवाधिकारों का हनन भी है.              आपने अक्सर देखा होगा ... घरों में होने वाले मांगलिक कार्यों में विधवा स्त्री के प्रति उपेक्षा का भाव . नारी के खिलाफ़ सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाने का साहस करना ही होगा . किसी धर्म ग्रंथ में पति विहीन नारी को मांगलिक कार्यों में प्रमुख भूमिका से हटाने अथवा दूर रखने के अनुदेश नहीं हैं. जहां तक हिंदू धर्म का सवाल है उसमें ऐसा कोई अनुदेश नहीं पाया जाता न तो विधवा का विवाह शास्त्रों के अनुदेशों के विरुद्ध है.. न ही उसको अधिकारों से वंचित रखना किसी शास्त्र में निर्देशित किया गया है. क्या विधवा विवाह शास्त्र विरुद्ध है? इस विषय पर गायत्री उपासकों की वेबसाइट http://literature.awgp.org/hindibook/yug-nirman/SocietyDevelopment/KyaVidhvaVivahShastraViruddhHai.1 पर स्पष्ट लिखा है कि यह अनाधिकृत है.

विधवाओं के लिये वर्जित क्या है

  1. श्रृंगार :- विधवा स्त्री को स्वेत वस्त्र पहनने की अनुमति है. उसे श्रृंगार की अनुमति कदापि नहीं दी गई है. आधार में ये तथ्य है कि रंगीन वस्त्र उसे उत्तेजक बना सकते हैं. जो पारिवारिक सम्मान को क्षति पहुंचाने का कारण हो सकता है.
  2. पुनर्विवाह  :- ईश्वर चंद्र विद्यासागर के अथक प्रयासों से पुनर्विवाह को अब अंगीकार किया जाने लगा है. 
  3. पारिवारिक सांस्कृतिक आयोजनों में प्रमुख भागीदारी :- पुत्रों, पुत्रीयों, अथवा अन्य रक्त सम्बंधियों के विवाह, चौक, आदि में विधवाओं को मुख्य समारोह से विलग रखा जाता है. यदि कोई विधवा स्त्री अपनी संतान का विवाह करवा रही है तो उसका धन शुद्ध माना जाता है जबकि उसका स्वयं मंडप में प्रवेश वर्जित है. यहां तक कि वर मां/ वधू मां का दायित्व परिवार के किसी अन्य जोड़े को दिया जाता जै. 
  4. ग्रह प्रवेश में किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान में मान्यता का अभाव  :-  आज़ भी मौज़ूद  है यह कुरीति .भले ही विधवा ने स्वयं अर्जित / पति की विरासत से प्राप्त धन से अचल सम्पदा अर्जित की हो 
  5. मनोरंजक/हास-परिहास जैसे पारिवारिक आयोजन  :- ऐसे आयोजन में भी विधवाओं को परे रखने की व्यवस्था समाज में है. 

अगर शास्त्रों द्वारा विधवाओं को सामान्य जीवन से प्रथक रखने की कोशिश के निर्देश दिये भी जाते तो ऐसे निर्देशों को सभ्य-समाज को बदल देना चाहिये.  सनातन धर्म अन्य धर्मों की तरह कठोर नही है. धर्म देख काल परिस्थिति अनुसार  विकल्पों के प्रयोग की अनुमति देता है. किंतु ब्राम्हणवादी व्यबस्था के चलते कुछ मुद्दे अभी भी यथावत हैं. नारी के पति विहीन होने पर उसका श्रृंगार अधिकार छिनना, उसकी चूड़ियां सार्वजनिक तौर पर तोड़ना एक लज्जित कर देने वाली कुरीति है. पति के शोक में डूबी नारी को क़ानून के भय से सती भले ही न बनाता हो ये समाज पर नित अग्नि-पथ पर चलने मज़बूर करता है. उसके अधिकार छीन कर जब मेरी दादी मां के सर से बाल मूढ़ने नाई आता था तब मै बहुत कम उम्र का था पर समझ विकसित होते ही  जब मुझे इस बात का एहसास हुआ कि सत्तर वर्ष की उम्र में भी उनको विधवा होने का पाठ पढ़ाया जा रहा है तो मैं बेहद दु:खी हुआ.
    तेज़ी से सामाजिक परिवर्तन हो रहा है. किंतु समाज ने अपनी विधवा मां, बहन, बेटी, भाभी, बहू किसी के अधिकार छिनते देख एक शब्द भी नहीं कहा. किसी में भी हिम्मत नहीं है. किस बात का भय है.   हम सनातन धर्म के अनुयायी हैं जो लचीला है..  कर्मकांडी अथवा  पंडे इसे रोजी रोटी कमाने लायक ही जानते हैं. पंडे क्या हमें धर्म के मूल तत्व आ अर्थ बता सकते हैं. वे सिखाएंगे भी क्या..उनका काम सीमित है  हमें सामाजिक बदलाव लाना है. ऐसा सामाजिक बदलाव जिससे किसी प्राणी मात्र को पीडा से मुक्त रखा जा सके.  शंकराचार्यों को ऐसे  विषय पर समाज को मार्गदर्शन देने की ज़रूरत है. न कि विवादित बयानों की .
सुधि पाठको पूरी ईमानदारी से विचारमग्न हो के सोचिये कि आप मेरे इस आह्वान पर क्या सोचते हैं.. नारी के तिरस्कार वाली क्रियाओं से समाज के विमुक्त करने विधवाओं के प्रति सकारात्मक दायित्व निर्वहन से क्या धरती धरती न रहेगी. ... ?          


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